विकास के उपर्युक्त सिद्धान्तों का शैक्षणिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण स्थान है-
1. विकास की गति और मात्रा सभी बालकों में एक जैसी नहीं पाई जाती। अतः व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान में रखकर सभी बालकों से एक जैसे विकास की आशा नहीं करनी चाहिए। यदि बालक से अधिक की अपेक्षा की जाएगी तो उसमें अपूर्णता की भावना आ जाएगी तथा कम की अपेक्षा की जाएगी तो उसकी भावनाओं और क्रियाओं को प्रोत्साहन नहीं मिल पाएगा। परिणामतः जिन कार्यों को करने की क्षमता उसमें होगी, वह भी ठीक से नहीं कर पाएगा।
2. विकास के सिद्धान्त पाठ्यक्रम निर्माण में बड़े सहायक होते हैं। पाठ्यक्रम इस प्रकार का बनाया जाना चाहिए जिससे बालकों का सभी क्षेत्रों में विकास हो सके। पाठ्यक्रम में पाठ्यसहगामी क्रियाओं का भी आयोजन होना चाहिए। विकास के सिद्धान्तों के ज्ञान के कारण ही बालक की विभिन्न अवस्थाओं के लिए भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रम बनाए जा सकते हैं।
3. विकास के सिद्धान्तों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बालक का विकास सामान्य रूप से हो रहा है या नहीं। इस अनुमान से उनके विकास के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था तथा सहयोग दिया जा सकता है। माता-पिता, अध्यापक बालकों के विकास की दिशाओं को ध्यान में रखते हुए शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उपयुक्त वातावरण एवं साधन प्रदान करने का प्रयत्न कर सकेंगे।
4. विकास किस प्रकार का होता है, इसके ज्ञान से अभिभावक व अध्यापक यह निर्धारित कर सकेंगे कि बालक के विकास के लिए कब अधिक और कब कम प्रयत्न किया जाए। इस प्रकार का ज्ञान बालक के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करने में सहायता देता है। जैसे-जब शिशु चलना आरम्भ कर देता है तब उसे चलने के अभ्यास के लिए पूर्ण अवसर, उपयुक्त वातावरण और उपयुक्त सामग्री प्रदान करना चाहिए। उचित वातावरण के अभाव में या ध्यान न देने पर वह देर से चलना आरम्भ करता है। विकास की प्रत्येक अवस्था की संभावनाएँ और सीमाएँ होती हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि अध्यापक और माता-पिता को बालकों से ऐसा करने की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए जो उनकी विकास की अवस्था से परे है। यदि वे ऐसा करते हैं तो इसका परिणाम बालकों में कुंठा, तनाव तथा स्नायुविक दुर्बलता लाने का ही होगा। उदाहरणार्थ, प्राथमिक कक्षा के एक बालक से अमूर्त अवधारणाओं और सिद्धान्तों का विवेचन करने की अपेक्षा रखना गलत है।
5. विकास की अन्त: सम्बद्धता ज्ञान को अन्तःसम्बन्धित तरीके से प्रस्तुत करने का संकेत देती है। ऐसा अन्त:सम्बन्धित ज्ञान प्रयोगात्मक भी होना चाहिए। अर्थात् जो कुछ सिखाया उसको व्यावहारिक रूप में करने की शिक्षा भी दी जाए।
6. वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों मिलकर बालक के विकास के लिए उत्तरदायी हैं, कोई एक नहीं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस बात का ज्ञान वातावरण में आवश्यक सुधार लाकर बालकों को अधिक-से-अधिक कल्याण करने के लिए प्रेरित करता है।