समकालीन भारत और शिक्षा – विस्तृत लेख
🔹 भूमिका
“समकालीन भारत और शिक्षा” विषय आधुनिक भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक दशा और दिशा को समझने का एक सशक्त माध्यम है। इस विषय के अंतर्गत हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि किस प्रकार स्वतंत्रता के बाद भारत में शिक्षा की भूमिका बदली है और यह समाज के विभिन्न तबकों के लिए कैसे एक साधन बनी है।
🔹 भारत का सामाजिक परिदृश्य और शिक्षा
भारत एक विविधतापूर्ण देश है जिसमें जाति, धर्म, भाषा, वर्ग और लिंग के आधार पर अनेक सामाजिक संरचनाएँ हैं। इन संरचनाओं का शिक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। विशेषकर वंचित वर्गों (जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और महिलाएं) के लिए शिक्षा सामाजिक न्याय प्राप्त करने का एक साधन बनती है। शिक्षा के माध्यम से समाज में समानता और समावेशन की भावना को बढ़ावा दिया जा सकता है।
🔹 भारतीय संविधान और शिक्षा
भारतीय संविधान ने शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है। संविधान के अनुच्छेद 21A के अंतर्गत 6 से 14 वर्ष के बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्राप्त है। इसके अतिरिक्त संविधान के अनुच्छेद 45, 46 एवं नीति-निर्देशक सिद्धांत भी शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हैं। शिक्षा न केवल व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करती है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों को भी सशक्त बनाती है।
🔹 शिक्षा में विविधताएँ और चुनौतियाँ
भारत जैसे विशाल देश में शिक्षा के क्षेत्र में कई चुनौतियाँ हैं – जैसे क्षेत्रीय असमानता, लिंग भेद, आर्थिक विषमता, ग्रामीण-शहरी अंतर, भाषा की विविधता और निजीकरण का प्रभाव। इन समस्याओं के कारण शिक्षा सभी तक समान रूप से नहीं पहुँच पाती। हालांकि सरकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान, समग्र शिक्षा योजना, मध्याह्न भोजन योजना आदि कार्यक्रमों के माध्यम से इन असमानताओं को कम करने का प्रयास किया जा रहा है।
🔹 शिक्षा और आर्थिक विकास
शिक्षा देश के आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षित मानव संसाधन उद्योग, कृषि, सेवा क्षेत्र और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में योगदान देता है। साथ ही, शिक्षा के माध्यम से बेरोजगारी, गरीबी और जनसंख्या वृद्धि जैसी समस्याओं से भी निपटा जा सकता है।
🔹 नई शिक्षा नीति 2020 की भूमिका
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भारत के शैक्षिक परिदृश्य में एक ऐतिहासिक बदलाव है। यह नीति समावेशी, बहुआयामी, कौशल आधारित, और मातृभाषा को प्राथमिक स्तर पर माध्यम बनाने की दिशा में कई महत्वपूर्ण निर्णय प्रस्तुत करती है। यह नीतिगत परिवर्तन शिक्षा को अधिक सुलभ, गुणवत्तापूर्ण और समसामयिक बनाने की दिशा में अग्रसर है।
🔹 निष्कर्ष
समकालीन भारत में शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का एक प्रमुख साधन बन चुकी है। शिक्षा के बिना समावेशी विकास, सामाजिक समरसता और लोकतांत्रिक सशक्तिकरण की कल्पना अधूरी है। अतः आवश्यकता है कि हम शिक्षा को केवल एक डिग्री प्राप्ति तक सीमित न रखें, बल्कि इसे जीवन मूल्यों और सामाजिक जिम्मेदारियों से जोड़ें।