मनुष्य के विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से ही आरम्भ हो जाती है। गर्भावस्था से आरम्भ हुआ विकास जीवन पर्यन्त निरन्तर चलता रहता है। मनुष्य के अन्दर बहुत-से परिवर्तन अवस्था-परिवर्तन के साथ होते रहते हैं। ये परिवर्तन कुछ निश्चित सिद्धान्तों के अनुरूप होते हैं। व्यक्ति के विकास के अनेक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त हैं। मुख्य सिद्धान्तों का संक्षिप्त उल्लेख यहाँ किया जा रहा है।
1. निरन्तरता का सिद्धान्त (Principle of Continuity) – मानव विकास एक सतत् प्रक्रिया है जो जन्म से मृत्यु तक निरन्तर चलती रहती है तथा उसमें कोई भी विकास आकस्मिक ढंग से नहीं होता है, धीरे-धीरे होता है। स्किनर के अनुसार विकास प्रक्रियाओं की निरन्तरता का सिद्धान्त केवल इस तथ्य मनुष्य की शारीरिक पर बल देता है कि व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता। उदाहरणार्थ, मनुष्य की शारीरिक अभिवृद्धि आयु बढ़ने के साथ-साथ धीरे-धीरे बढ़ती है, एकदम नहीं और परिपक्वता प्राप्त करने के बाद रुक जाती है तथा जहाँ तक मनोशारीरिक क्रिया-अनुक्रियाओं की बात है, उनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। इन परिवर्तनों में प्रगतिशील ऊर्ध्वगामी परिवर्तनों को विकास कहा जाता है और यह भी एकदम नहीं होता, जैसे-जैसे नए अनुभव होते हैं, वैसे-वैसे नई प्रतिक्रियाएँ होने लगती हैं, उनमें विकास होता रहता है।
2. व्यक्तिगतता का सिद्धान्त (Principle of Individuality ) – यद्यपि मानव विकास का एक समान प्रतिमान होता है किन्तु वंशानुक्रम एवं वातावरण की भिन्नता के कारण प्रत्येक व्यक्ति के विकास में कुछ भिन्नता भी होती है। जिस प्रकार कोई भी दो व्यक्ति पूर्णरूपेण एकसमान नहीं हो सकते हैं उसी तरह दो अलग-अलग व्यक्तियों का विकास भी पूर्णरूपेण एक तरह नहीं होता है। इसके अतिरिक्त बालकों और बालिकाओं के विकास में भिन्नता होती है। उदाहरणार्थ-बालिकाओं का शारीरिक विकास बालकों के शारीरिक विकास से बहुत अधिक भिन्न होता है।
3. परिमार्जिता का सिद्धान्त (Principle of Modifiability) – परिमार्जिता के सिद्धान्त के अनुसार बालक के विकास की दिशा और गति का परिमार्जन किया जा सकता है। इस सिद्धान्त का शैक्षिक निहितार्थ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। शिक्षा का उद्देश्य है- बालक का सन्तुलित और सर्वांगीण विकास करना। शिक्षा और प्रशिक्षण के द्वारा बालक के व्यवहार को वांछित दिशा में अनुप्रेरित किया जा सकता है। बालक के विकास की दिशा और गति को परिमार्जित कर उसके व्यक्तित्व के व्यवस्थापन को बिगड़ने से बचाया जा सकता है।
4. विकास क्रम का सिद्धान्त (Principle of Development Sequence) – यद्यपि विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से मृत्यु- पर्यन्त निरन्तर चलती रहती है परन्तु इस विकास का एक निश्चित क्रम होता है। सबसे पहले बालक का गामक और भाषा सम्बन्धी विकास होता है। बालक पहले क्रंदन करता है, फिर निरर्थक शब्दों का उच्चारण करता है, अन्त में सार्थक शब्दों और वाक्यों पर पहुँचता है। इसी प्रकार गामक विकास में बच्चा पहले-पहले हाथ-पैर पटकता है, फिर पलटता है, फिर बैठता है, उसके बाद खड़ा होता व चलता है।
5. सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Responses) – मनोवैज्ञानिकों ने यह भी स्पष्ट किया है कि मनुष्य का विकास सामान्य प्रतिक्रियाओं से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं की ओर होता है। हरलॉक के अनुसार- “विकास की सब अवस्थाओं में बालक की प्रतिक्रियाएँ विशिष्ट बनने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती हैं।” उदाहरणार्थ, बालक पहले हर वस्तु मुँह में रखता है, उसके बाद अनुभव द्वारा केवल खाद्य पदार्थों को ही मुँह में रखता है। उसके बाद एक निश्चित समय में निश्चित ढंग से खाना सीख लेता है।
6. केन्द्र से निकट दूर का सिद्धान्त (Proximo Distal Principle) – इस सिद्धान्त के विकास का केन्द्र बिन्दु स्नायुमंडल होता है। विकास की गति केन्द्र से दूरवर्ती भागों की ओर चलती है। अनुसार पहले स्नायुमंडल का विकास होता है। फिर स्नायुमंडल के निकटवर्ती भाग हृदय, छाती आदि का विकास होता है, अन्त में दूरवर्ती भाग पर एवं उनकी उंगलियों पर नियंत्रण होता है।
7. मस्तकाधोमुखी का सिद्धान्त (Cephalocaudal Principle) – इस सिद्धान्त के अनुसार विकास की क्रिया सिर से आरम्भ होकर पैरों की ओर जाती है अर्थात् विकास ऊपर से नीचे की ओर चलता है। गर्भ में पहले सिर विकसित होता है। गर्भ के बाद बालक सर्वप्रथम सिर को उठाता है, फिर धड़ और बाद में दूसरे अंगों जैसे पैरों का हिलाना-डुलाना सीखता है। बैठने के पश्चात् चलना, दौड़ना इत्यादि सीखता है।
8. एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration) – विकास की प्रक्रिया एकीकरण के सिद्धान्त का पालन करती है। इसके अनुसार बालक अपने सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। इसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। सामान्य से विशेष की ओर बदलते हुए विशेष प्रतिक्रियाओं और चेष्टाओं को इकट्ठे रूप में प्रयोग में लाना सीखता है। उदाहरण के लिए, एक बालक पहले पूरे हाथ को, फिर उंगलियों को और फिर हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।
9. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Interrelation) – मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक और चारित्रिक सभी प्रकार के विकास में पारस्परिक सम्बन्ध होता है, ये एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं और एक के साथ अन्य सबका विकास होता है। उदाहरण के लिए, जैसे-जैसे व्यक्ति के शरीर के बाह्य तथा आन्तरिक अंगों की वृद्धि होती है, उनका आकार व भार बढ़ता है वैसे-वैसे उसके शरीर के अंगों की कार्यक्षमता का विकास होता है तथा जैसे-जैसे उसके शरीर के अंगों, विशेषकर ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की कार्यक्षमता बढ़ती है वैसे-वैसे उसका मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक और चारित्रिक विकास भी होता है। हाँ, यह आवश्यक है इसके लिए उचित वातावरण और शिक्षा उपलब्ध हो।
10. समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern) – समान प्रजाति के विकास के प्रतिमानों में समानता पायी जाती है। प्रत्येक प्रजाति, चाहे वह पशु प्रजाति हो या मानव प्रजाति, अपनी प्रजाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करता है। संसार के समस्त भागों में मानव शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है।
11. वंशानुक्रम तथा वातावरण की अन्तःक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction of Heredity and Environment) – इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के विकास में वातावरण और आनुवांशिकता दोनों का सापेक्षिक महत्व होता है, विकास दोनों की अन्तःक्रिया का परिणाम होता है। जैसे-किसी बीज में अन्तर्निहित क्षमताओं को प्रस्फुटित होने के लिए मिट्टी, खाद, पानी, हवा की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार बालक में आनुवांशिकता से जो क्षमताएँ उपस्थित होती हैं उन्हें अच्छे वातावरण द्वारा ही पूर्णरूप से विकसित किया जा सकता है अन्यथा वह भेड़िए द्वारा पालित बच्चे की तरह अविकसित रह जाएगा। सन् 1951 में भेड़िए द्वारा पालित एक बच्चा मिला, जिसे लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में रखा गया, इसका नाम रामू रखा गया, इसका विकास भेड़ियों की तरह था। इस प्रकार व्यक्ति के विकास के लिए वातावरण तथा आनुवांशिकता दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।